पेरियार का जीवन और उनके विचार........
पेरियार के नाम से विख्यात, ई. वी. रामास्वामी का तमिलनाडु में आर्य-ब्राह्मणों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व को तोड़ने में पेरियार की मुख्य भूमिका रही है। जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्होंने बहुजनों को उनका हक दिलाया। फुले, आंबेडकर और पेरियार आधुनिक युग में बहुजन चिंतन परंपरा के आधार स्तम्भ हैं। पेरियार ने तर्कवाद, आत्म सम्मान और महिला अधिकार जैसे मुद्दों पर जोर दिया. उन्होंने जाति प्रथा का घोर विरोध किया।
जीवन परिचय
पेरियार ई.वी.रामास्वामी नायकर का जन्म दक्षिण भारत के ईरोड (तमिलनाडु) नामक स्थान पर 17 सितम्बर 1879 ई. को हुआ था। इनके पिताजी का नाम वेंकटप्पा नायकर तथा माताजी का नाम चिन्नाबाई था। वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र, वेंकटप्पा नायकर एक बड़े व्यापारी थे। धार्मिक कार्यों, दान व परोपकार के कार्यों में अत्यधिक रुचि रखने के कारण उन्हें उस क्षेत्र में अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। पेरियार रामास्वामी नायकर की औपचारिक शिक्षा चौथी कक्षा तक हुई थी। 10 वर्ष की उम्र में उन्होंने पाठशाला को सदा के लिए छोड़ दिया। पाठशाला छोड़ने के पश्चात वे अपने पिताजी के साथ व्यापार के कार्य में सहयोग करने लगे। इनका विवाह 19 वर्ष की अवस्था में नागम्मई के साथ सम्पन्न हुआ।
पेरियार रामास्वामी का परिवार धार्मिक तथा रूढ़िवादी था। लेकिन अपने परिवार की परम्पराओं के विपरीत पेरियार रामास्वामी किशोरावस्था से ही तार्किक पद्धति से चिन्तन–मनन करने लगे थे। इनके घर पर अक्सर धार्मिक अनुष्ठान एवं प्रवचन होते रहते थे। रामास्वामी अपने तार्किक प्रश्नों से अनुष्ठानकर्ताओं को अक्सर संकट में डाल देते थे। उम्र बढ़ने के साथ–साथ पेरियार अपनी वैज्ञानिक सोच पर और दृढ़ होते गये। परिणामस्वरूप परिवार की अन्धविश्वास–युक्त एवं ढकोसले वाली बातें, एक के बाद एक रामास्वामी के प्रहार का निशाना बनने लगी। जो भी कार्य उन्हें अनावश्यक लगता था, या तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, उसे अवश्य ही बन्द करने का प्रयत्न करते। उदाहरणस्वरूप– स्त्रियों द्वारा गले में पहने जाने वाला आभूषण ‘बाली’ या ‘हंसुली’ को वे बंधन या गुलामी का प्रतीक मानते थे। अतः उन्होंने अपनी पत्नी के गले से भी ‘हंसुली’ उतरवा दिया था। अपनी पत्नी व परिवार के अन्य सदस्यों को वे मन्दिर भी नहीं जाने देते थे। वे अक्सर अपने अस्पृश्य मित्रों को परिवार की परम्परा के विरुद्ध अपने घर बुलाते और साथ में भोजन करते।
पेरियार रामास्वामी का धर्म–विरुद्ध आचरण उनके परिवार के लोगों को खटकने लगा। एक सफल व्यापारी होने के कारण उनके पिताजी ने जो सम्मान और श्रद्धा अर्जित की थी, वह धीरे–धीरे घटने लगी। विशेष रूप से उनके पिताजी वेंकटप्पा नायकर को अपने धर्माचरण तथा विश्वास इतने प्रिय थे, कि वे अपने पुत्र तथा व्यापार सभी को तिलांजलि दे सकते थे। मतभेदों ने शीघ्र ही छिट–पुट कहासुनी तथा विरोधों का रूप धारण कर लिया। अन्ततः रामास्वामी ने पितृगृह छोड़ने का निश्चय कर लिया। गृहत्याग के पश्चात् रामास्वामी कुछ दिनों तक इधर–उधर घूमते रहे। बहुत दिनों तक वे संन्यासियों के साथ संन्यासी बनकर रहे। इस जीवन में उन्हें अपना स्वास्थ्य बिगड़ने के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त न हो सका। अन्ततः उन्होंने संन्यास जीवन त्याग दिया और पुनः अपने घर लौट आये।
गृह त्याग कर कुछ दिनों तक संन्यास जीवन व्यतीत करने के पश्चात् न तो रामास्वामी के विचार बदले न ही समाज की परिस्थितियां व समस्यायें ही बदलीं। परन्तु परिस्थितियों व समस्याओं के प्रति रामास्वामी के दृष्टिकोण में अवश्य ही परिवर्तन हो गया। इस परिवर्तन का एक कारण यह भी था कि उनके एक बार घर से चले जाने के कारण अब घर वाले भी नम्र हो गये थे। रामास्वामी ने भी अनुभव किया कि किसी बात पर सैद्धान्तिक वाद–विवाद करने, उससे टकराने या उससे बिल्कुल मुंह मोड़ लेने की अपेक्षा, उचित यह है कि उपस्थित समस्याओं पर मतभेद रखने वाले व्यक्तियों के साथ सहयोग करके उनके विचारों को बदलने का प्रयास किया जाय। इस प्रकार रामास्वामी ने अपने विचारों में परिवर्तन किये बिना, अपनी कार्यपद्धति में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया।
राजनीतिक विवरण
1919 में उन्होंने अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत कट्टर गांधीवादी और कांग्रेसी के रूप में की। वो गांधी की नीतियों जैसे शराब विरोधी, खादी और छुआछूत मिटाने की ओर आकर्षित हुए
तर्कवादी, नास्तिक और वंचितों के समर्थक होने के कारण उनकी सामाजिक और राजनीतिक ज़िंदगी ने कई उतार चढ़ाव देखे.
युवाओं के लिए कांग्रेस द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविर में एक ब्राह्मण प्रशिक्षक द्वारा गैर-ब्राह्मण छात्रों के प्रति भेदभाव बरतते देख उनके मन में कांग्रेस के प्रति विरक्ति आ गई। उन्होने कांग्रेस के नेताओं के समक्ष दलितों तथा पीड़ितों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा, जिसे मंजूरी नहीं मिल सकी। अंततः उन्होने कांग्रेस छोड़ दिया। दलितों के समर्थन में 1925 में उन्होने एक आंदोलन भी चलाया। सोवियत रूस के दौरे पर जाने पर उन्हें साम्यवाद की सफलता ने बहुत प्रभावित किया। वापस आकर उन्होने आर्थिक नीति को साम्यवादी बनाने की घोषणा की। पर बाद में अपना विचार बदल लिया।
फिर इन्होने जस्टिस पार्टी का नेतृत्व संभाला।जिसकी स्थापना कुछ गैर ब्राह्मणों ने किया थी। 1944 में जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविदर कड़गम कर दिया गया।
उन्होंने रूस का दौरा किया जहां वो कम्युनिस्ट आदर्शों से प्रभावित हुए और कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र का पहला तमिल अनुवाद प्रकाशित किया. महिलाओं की स्वतंत्रता को लेकर उनके विचार इतने प्रखर हैं कि उन्हें आज के मानदंडों में भी कट्टरपंथी माना जाएगा।
उन्होंने बाल विवाह के उन्मूलन, विधवा महिलाओं की दोबारा शादी के अधिकार, पार्टनर चुनने या छोड़ने, शादी को इसमें निहित पवित्रता की जगह पार्टनरशिप के रूप में लेने, इत्यादि के लिए अभियान चलाया था.
उन्होंने अपनी पत्नी नागमणि और बहन बालाम्बल को भी राजनीति से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया. ये दो महिलाएं ताड़ी के दुकानों के विरोध में सबसे आगे थीं. ताड़ी विरोध आंदोलन के साथ एकजुटता में उन्होंने स्वेच्छा से खुद अपने नारियल के बाग नष्ट कर दिए।
पेरियार का मानना था कि समाज में निहित अंधविश्वास और भेदभाव की वैदिक हिंदू धर्म में अपनी जड़ें हैं, जो समाज को जाति के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटता है जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊपर है। इसलिए, वो वैदिक धर्म के आदेश और ब्राह्मण वर्चस्व को तोड़ना चाहते थे. एक कट्टर नास्तिक के रूप में उन्होंने भगवान के अस्तित्व की धारणा के विरोध में प्रचार किया।
वो दक्षिण भारतीय राज्यों के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने दक्षिण भारत राज्यों की एक अलग द्रविड़नाडू (द्रविड़ देश) की मांग की थी। लेकिन दक्षिण के अन्य राज्य उनके विचारों से सहमत नहीं हुए. वो वंचित वर्गों के आरक्षण के अगुवा थे और 1937 में उन्होंने तमिल भाषी लोगों पर हिंदी थोपने का विरोध किया था।
पेरियार ने समूचे तमिलनाडु का दौरा किया और कई सभाओं में लोगों को संबोधित किया। अपने अधिकांश भाषणों में वो बोला करते थे, "कुछ भी सिर्फ़ इसलिए स्वीकार नहीं करो कि मैंने कहा है. इस पर विचार करो। अगर तुम समझते हो कि इसे तुम स्वीकार सकते हो तभी इसे स्वीकार करो, अन्यथा इसे छोड़ दो।
नास्तिक और ब्राह्मण विरोधी राजनीति के बावजूद अपने दोस्त और स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी से उनके व्यक्तिगत संबंध अच्छे थे।
उनकी पहचान तर्कवाद, समतावाद, आत्म-सम्मान और अनुष्ठानों का विरोधी, धर्म और भगवान की उपेक्षा करने वाले, जाति और पितृसत्ता के विध्वंसक के रूप में है।
दक्षिणपंथी उनकी आलोचना उस व्यक्ति के रूप में करते हैं जिन्होंने उनकी धार्मिक भावनाओं, परंपराओं को अपमानित किया।
विचारधारा
- दुनिया के सभी संगठित धर्मो से मुझे सख्त नफरत है.
- जो ईश्वर और धर्म में विश्वास रखता है, वह आजादी हासिल करने की कभी उम्मीद नहीं कर सकता।
- जब एक बार मनुष्य मर जाता है, तो उसका इस दुनिया या कहीं भी किसी के साथ कोई संबंध नहीं रह जाता है।
- धन और प्रचार ही धर्म को जिन्दा रखता है। ऐसी कोई दिव्य शक्ति नहीं है, जो धर्म की ज्योति को जलाए रखती है।
- धर्म का आधार अन्धविश्वास है। विज्ञान में धर्मों का कोई स्थान नहीं है। इसलिए बुद्धिवाद धर्म से भिन्न है। सभी धर्मवादी कहते हैं कि किसी को भी धर्म पर संदेह या कुछ भी सवाल नहीं करना चाहिए। इसने मूर्खों को धर्म के नाम पर कुछ भी कहने की छूट दी है। धर्म और ईश्वर के नाम पर मूर्खता एक सनातन रीत है।
- आइए विश्लेषण करें। कौन उच्च जाति के और कौन निम्न जाति के लोग हैं। जो काम नहीं करता है, और दूसरों के परिश्रम पर रहता है, वह उच्च जाति है। जो कड़ी मेहनत करके दूसरों को लाभ प्रदान करता है, और बोझ ढोने वाले जानवर के समान बिना आराम और खाए-पिए कड़ी मेहनत करता है, उसे निम्न जाति कहा जाता है।
- स्वराज क्या है? हर एक को स्वराज में खाने, पहनने और रहने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। क्या हमारे समाज में आपको यह सब मिलता है? तब स्वराज कहाँ है?
- हम जोर-शोर से स्वराज की बात कर रहे हैं। क्या स्वराज आप तमिलों के लिए है, या उत्तर भारतीयों के लिए है? क्या यह आपके लिए है या पूंजीवादियों के लिए है?क्या स्वराज आपके लिए है या कालाबाजारियों के लिए है? क्या यह मजदूरों के लिए है या उनका खून चूसने वालों के लिए है?
- जो लोगों को अज्ञान में रखकर राजनीति में प्रमुख स्थिति प्राप्त कर चुके हैं, उनका ज्ञान के साथ कोई संबंध नहीं माना जा सकता।
- आज हमें देश के लोगों को ईमानदार और निःस्वार्थ बनाने वाली योजनाएं चाहिए। किसी से भी नफरत न करना और सभी से प्यार करना, यही आज की जरूरत है।
- जो लोग प्रसिद्धि, पैसा, पद पसंद करते हैं, वे तपेदिक की घातक बीमारी की तरह हैं। वे समाज के हितों के विरोधी हैं।
- मैंने सब कुछ किया। मैंने गणेश आदि सभी ब्राह्मण देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़ डालीं। राम आदि की तस्वीरें भी जला दीं। मेरे इन कामों के बाद भी मेरी सभाओं में मेरे भाषण सुनने के लिए यदि हजारों की गिनती में लोग इकट्ठा होते हैं तो साफ है कि 'स्वाभिमान तथा बुद्धि का अनुभव होना जनता में, जागृति का सन्देश है।
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