समाजसुधारक ज्योतिबा फुले | Essay on Jyotiba Phule in Hindi

क्या आपने कभी ज्योतिबा फुले का नाम सुना है, क्या आप जानते हैं, कि ये कौन थे, इनका हमारे जीवन में क्या योगदान है ?

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ज्योतिराव गोविंदराव फुले (जन्म -11 अप्रैल 1827, मृत्यु - 28 नवम्बर 1890 (उम्र 63))

   

         एक महान भारतीय विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। इन्हें 'महात्मा फुले' एवं 'ज्‍योतिबा फुले' के नाम से जाना जाता है महिलाओं व दलितों के उत्थान के लिय इन्होंने अनेक कार्य किए। समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे। वे भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और भेदभाव के विरुद्ध थे।

   उनका प्राथमिक उद्देश्य महिलाओं को शिक्षा प्रदान करना, बाल विवाह का विरोध करना है, विधवा विवाह का समर्थन करना, महात्मा फुले समाज की कुप्रथा,अंधश्रद्धा के जाल से समाज को मुक्त करना चाहते थे


ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार नहीं पा लेतीं ।

उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें । मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं ।

महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया । वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे । मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था । एक बार ज्योतिबा अपने ब्राह्मण मित्र के विवाह में गये हुए थे ।

बारातियों को जब ये पता चला कि वे माली जाति के हैं, तो उन्होंने ज्योतिबा को न केवल अपमानित किया, वरन् बाहर जाने को कहा । ”पढ़ने-लिखने के बाद भी तुम नीच जाति के हो, इसीलिए तुम नीच ही रहोगे”, ऐसा कहकर बुरी तरह अपमानित किया ।

इस अपमान ने उन्हें भीतर तक हिलाकर रख दिया था । उन्हें लगा ऐसे धर्म में रहकर क्या फायदा, जो जाति-पांति के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव करता है । ऐसी संकीर्ण विचारधारा ने भारतीय धर्म को पतन की ओर धकेला है। उन्होंने सामाजिक बुराई से लड़ते हुए मनुष्यता के उत्थान का संकल्प ले लिया ।

इस बुराई को दूर करने से पहले अपने बारे में सोचना भी पाप है, ऐसा संकल्प लेकर इसे पूरा करने में जुट गये । उनकी पत्नी सावित्री बाई ने उनके इस सामाजिक कार्य में पग-पग पर उनका साथ दिया । उन दोनों ने एक मिशनरी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सामाजिक समानता की भावना थी ।

उन दोनों ने पास-पड़ोस की कन्याओं को एकत्र कर एक कन्या शाला की शुरुआत की । ब्राह्मण वर्ग ने इसका जमकर विरोध किया । उन्हें जान से मारने की धमकियां दी जाने लगीं । उन्होंने नारी शिक्षा की आवश्यकता और उपयोगिता से सम्बन्धित अनेक भाषण दिये, लेख लिखे ।

उन दोनों के इस अनोखे जोश से कन्या शाला जोर-शोर से चलने लगी । नारी शिक्षा के इस व्यापक प्रसार को, महाराष्ट्र में मिले इस स्वागत को अंग्रेजों ने भी बढ़ाया । एक गर्भवती विधवा की दुर्दशा देखकर उन्होंने विधवा विवाह की वकालत कर डाली । संर्कीर्ण समाज ने उन्हें धर्म और शास्त्रों की दुहाई दी ।


व्यक्तिगत जीवन

उन्होंने सावित्रीबाई से एक युवा लड़के के रूप में शादी की थी जो सिर्फ नौ साल का था।  उनकी पत्नी ने उनके आदर्शवादी विचारों का पूरा समर्थन किया और अपने आप में एक नारीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता बन गईं।

 दंपति के कोई जैविक बच्चे नहीं थे।  उन्होंने शिशुओं में से एक को गोद लिया, एक लड़का, घर से वे गर्भवती विधवाओं के लिए भागे।  लड़का बड़ा होकर एक डॉक्टर बन गया और अपने माता-पिता की सामाजिक सेवा की विरासत को आगे बढ़ाया।

 मुंबई के महान सुधारक, राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णजी वांडेकर ने ज्योतिराव फुले को मानवता के प्रति उनकी निस्वार्थ सेवाओं के लिए मई 1888 में "महात्मा" की उपाधि दी।

 उन्हें जुलाई 1888 में एक लकवाग्रस्त स्ट्रोक का सामना करना पड़ा। अगले कुछ वर्षों में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और नवंबर 1890 में उनकी मृत्यु हो गई, जो परिवार और दोस्तों से घिरे थे। मृत्यु के पश्चात उनका परिवार और उनके चाहने वाले कई दिनों तक शोक में डूबे रहे।

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